याद आये कागद कारे


कुमारजी के गीतों से आत्मा को तृप्त करना , सचिन की बैटिंग  से अभिभूत रहना , मन में माँ नर्मदा के लिए  सदैव असीम श्रद्धा रखना, और अपनी मालवी शैली को कभी न छोड़ना. अपनी  पत्रकारिता के अतिरिक्त प्रभाष जी की ये कुछ  ऐसी विशेषताएं  थीं जिनसे मैं सदैव प्रभावित रहूँगा.

कोई १९९२ के आस पास मैंने जनसत्ता अखबार पढना शुरू किया और जब पढ़ा तो खूब पढ़ा , कर्नाटक के तटीय कसबे  कुमटा  में हमारा स्कूल था , सारे कन्नड़ कोंकणियों  के मध्य मुझे जनसत्ता और धर्मयुग बड़े अपने से लगते, तभी न जाने कैसे प्रभाष जी से नाता जुड़ता चला गया , कागद कारे का मैं स्थायी पाठक था , शायद इसलिए भी क्यों की उसकी भाषा में मालवांचल की महक थी , पर ये प्रभाष जोशी कौन हैं ये मैं नहीं जानता था , हाँ नाम ऐसा याद हो गया था के भूलना मुश्किल था , फिर कुछ ही सालों में सेटेलाइट  चैनेलों का दौर  आया और तब उनके स्टूडियो में टीपिकल इन्दोरी शैली में हिंदी बोलने वाला कोई एक शख्स क्रिकेट या अन्य मुद्दों पर अपनी राय रखता , उसके  विचारों  में दम होता था और  शब्दों में वजन. अपनी बात की प्रस्तुति के लिए बड़े बड़े शब्दों का प्रयोग उसने नहीं किया , बड़ी ही सरल भाषा में बड़ी बड़ी बातें कह जाता, अपना सा लगता . और जब नाम देखा " प्रभाष जोशी" तो ध्यान आया के साहब से तो नाता पुराना हैं , कागद कारे के समय का. 

मैं मध्यप्रदेश में मालवांचल से आता हूँ , मालवा और निमाड़ के इस अंचल  का होने का मुझे बड़ा गर्व है , और इसीलिए जब भी यहाँ के किसी व्यक्ति को भीड़ से अलग अपनी चमक बनाते देखता हूँ तो मेरा ये गर्व और भी बढ़ जाता है, प्रभाष जी जब  टी वी पर बोलते थे मैं कर्फ्यू जैसी स्थिति निर्मित कर देता था , पिन ड्रॉप साइलेंस. उनकी बातों के वजन के अतिरिक्त मुझे उनकी मालवी शैली का बड़ा कौतुक होता , और यही वजह है कि मैं किशोर कुमार जी और  चंदू पारखी का भी  बड़ा फैन  हूँ , उन्होंने अपनी मालवी निमाड़ी  शैली ता जिन्दगी नहीं छोड़ी. समय के झंझावातों और दिल्ली के प्रभाव ने कभी भी प्रभाष जी का ठेठ मालवीपना कम नहीं होने दिया , वे हमेशा हम को अपन, मैं को में , है को हे और  ऐसा को एसा  ही कहते रहे , उन्हें हिंदी पत्रकारिता में स्थान बनाने के लिए अपनी हिंदी का उत्तरप्रदेशी- बिहारीकरण नहीं करना पड़ा,जैसा कि अब यहाँ से गए अनेक पत्रकार कर रहे हैं . उन्होंने वो लिखा जिस पर उन्हें भरोसा था,  वो नहीं जो बिकता था .  दिल्ली में रहकर भी मन कि नर्मदा कभी सूखने नहीं दी, ’त्रिभिः सारस्वतं पुण्यं समाहेन तु यामुनम्‌। साद्यः पुनाति गांगेयं दर्शनादेव नर्मदा॥’ में  उनका  विश्वास सदैव शाश्वत रहा. कुमारजी के “उड़ जाएगा हंस अकेला " को अपनी आत्मा से अलग नहीं होने दिया. 

ऐसा नहीं है कि प्रभाष जी के न रहने से हिंदी पत्रकारिता समाप्त हो जाएगी या मालवांचल की धरती नए पत्रकार पैदा करना बंद कर देगी, कागद तो अब भी कारे होंगे, पर प्रभाष जी प्रभाष जी थे , उनके जैसा मालवा को अपने मन में रख कर जग भर के मुद्दों पर लिख सकने वाला अब मिलना  मुश्किल ही है.

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